उदासी भरे दिन एक बार फिर आने लगे हैं. ऐसा आमतौर पर एक मौसम को दूसरे मौसम में तब्दील होते देखने में होता है या फिर अचानक कोई बड़ा काम ख़त्म होने के बाद पैदा हुए खालीपन में महसूस होता है. स्कूल-कॉलेज के ज़माने में ऐसे उदास और खाली दिन एक्जाम्स ख़त्म होने के बाद आते थे. मजेदार बात यह कि बहुत ज्यादा पढाई के दबाव में न जाने कितनी कविताएं मन में बनती थीं, जाने कितनी कहानियों के प्लॉट बुना करते, लेकिन परीक्षाएं ख़त्म होते ही सब कुछ दिमाग से गायब हो जाता... सर्दियों की शुरुआत के दिन पहाडों पर और बुरे होते होते हैं . ६ बजे नहीं कि ऐसा सन्नाटा कि डर सा लगने लगे. हॉस्टल के दिनों में तो जाड़ों की शामें और उदास हुआ करतीं. वो होमसिकनेस वाले दिन थे, ढलती शाम का उनीदा सा सूरज पहाडों के पार उतरने को होता, हॉस्टल के पीछे लगी रेलिंग पर काफी देर तक खड़ी रहती, जब तक कि सूरज पूरा न डूब जाता और शाम थोडी और ठंडी-अंधेरी न हो जाती . सोचा करती क्या कभी मैं भी इन पहाडों के पार जा सकूंगी, मैदानों में दौड़ सकूंगी ? बडे दिन की छुट्टियों के दौरान जैसे ही घर जाने का दिन करीब आता मैं खुश हो जाती कि अब कुछ दिन इन पहाडों से निजात मिलेगी. चारों तरफ से घिरे हुए पहाड़ कैदखाने जैसे दिखते . जैसे ही बस तराई के जंगलों में उतरने लगती , मन घर जाने की खुशी को छुपा नहीं पाता, जी में आता बस में बैठे सारे जाने-अनजाने लोगों को बता दूँ कि घर जा रही हूँ.
आज कंक्रीट के इस महानगर में उन्हीं पहाडों को देखने के लिए बार-बार छुट्टियाँ प्लान करती हूँ तो सोचती हूँ बचपन में क्यों ये पहाड़ मुझे कैदखाने की तरह लगा करते थे, क्यों इनकी खूबसूरती मुझे नहीं लुभा पाती थी.
सर्दियों की शुरुआत मेरे लिए बचपन के पहाडों की ढेरों स्मृतियों को बटोर लाने की होती है. आज भी यहाँ दिल्ली में बैठी उस घर को याद कर रही हूँ जो शायद अब सिर्फ मेरी कल्पनाओं में बचा है . बाहर से उसकी शक्ल ज़रूर मेरे उस घर से मिलती-जुलती है, भीतर से वह बदल गया है , पूरी तरह .
Wednesday, November 14, 2007
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